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तनू॑नपात् प॒थऽऋ॒तस्य॒ याना॒न् मध्वा॑ सम॒ञ्जन्त्स्व॑दया सुजिह्व। मन्मा॑नि धी॒भिरु॒त य॒ज्ञमृ॒न्धन् दे॑व॒त्रा च॑ कृणुह्यध्व॒रं नः॑ ॥२६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तनू॑नपा॒दिति॒ तनू॑ऽनपात्। प॒थः। ऋ॒तस्य॑। याना॑न्। मध्वा॑। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। स्व॒द॒य॒। सु॒जि॒ह्वेति॑ सुऽजिह्व। मन्मा॑नि। धी॒भिः। उ॒त। य॒ज्ञम्। ऋ॒न्धन्। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। च॒। कृ॒णु॒हि॒। अ॒ध्व॒रम्। नः॒ ॥२६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:29» मन्त्र:26


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुजिह्व) सुन्दर जीभ वा वाणी से युक्त (तनूनपात्) विस्तृत पदार्थों को न गिरानेवाले विद्वान् जन ! आप (ऋतस्य) सत्य वा जल के (यानान्) जिनमें चलें उन (पथः) मार्गों को अग्नि के तुल्य (मध्वा) मधुरता अर्थात् कोमल भाव से (समञ्जन्) सम्यक् प्रकार करते हुए (स्वदय) स्वाद लीजिए अर्थात् प्रसन्न कीजिए (धीभिः) बुद्धियों वा कर्मों से (मन्मानि) यानों को (उत) और (नः) हमारे (अध्वरम्) नष्ट न करने और (यज्ञम्) सङ्गत करने योग्य व्यवहार को (ऋन्धन्) सम्यक् सिद्ध करता हुआ (च) भी (देवत्रा) विद्वानों में स्थित होकर (कृणुहि) कीजिए ॥२६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। धार्मिक मनुष्यों को चाहिए कि पथ्य, औषध पदार्थों का सेवन करके सुन्दर प्रकार प्रकाशित होवें, आप्त विद्वानों की सेवा में स्थित हो तथा बुद्धियों को प्राप्त हो के अहिंसारूप धर्म को सेवें ॥२६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(तनूनपात्) यस्तनूर्विस्तृतान् पदार्थान् न पातयति तत्सम्बुद्धौ (पथः) (ऋतस्य) सत्यस्य जलस्य वा (यानान्) याति येषु तान् (मध्वा) माधुर्येण (समञ्जन्) सम्यक् प्रकटीकुर्वन् (स्वदय) आस्वादय। अत्र संहितायाम् [अ०६.३.११४] इति दीर्घः। (सुजिह्व) शोभना जिह्वा वाग्वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (मन्मानि) यानानि (धीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (उत) अपि (यज्ञम्) सङ्गमनीयं व्यवहारम् (ऋन्धन्) संसाधयन् (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु स्थित्वा (च) (कृणुहि) कुरु (अध्वरम्) अहिंसनीयम् (नः) अस्माकम् ॥२६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सुजिह्व तनूनपात् ! त्वमृतस्य यानान् पथोऽग्निरिव मध्वा समञ्जन् स्वदय, धीभिर्मन्मान्युत नोऽध्वरं यज्ञमृन्धन् देवत्रा च कृणुहि ॥२६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। धार्मिकैर्मनुष्यैः पथ्यौषधसेवनेन सुप्रकाशितैर्भवितव्यम्। आप्तेषु विद्वत्सु स्थित्वा प्रज्ञाः प्राप्याहिंसाख्यो धर्मः सेवितव्यः ॥२६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. धार्मिक माणसांनी पथ्यकारक पदार्थांचे सेवन करून चांगल्याप्रकारे जगावे. आप्त विद्वानांची सेवा करावी. बुद्धीच्या साह्याने अहिंसा धर्माचे पालन करावे.